मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

गंदा दंगा

...............आज दंगों की बात फूटी है l
1984 और 2002 के ही दंगों की चर्चा होती है l
मुझे भी स्मरण है, कदाचित आपको भी हो -
इसी काल खंड में सरकारी तंत्र द्वारा प्रायोजित एक दंगा हुआ था, कोई 250-300 ज़िन्दगी की आहुतियां हुई थीं l
नही याद आया,
अभी याद आ जाएगा l
भारत के प्रधानमंत्री के रूप में निकृष्टतम प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की संस्तुतियों को भारत में लागू करने की घोषणा की गई थी l
पूरे देश में हाहाकार मच गया था l यह आजादी के बाद के भारत को सामाजिक तौर सर्वाधिक हानि पंहुचाने वाला कदम था l
क्या इस घोषणा के पीछे वास्तव में तथाकथित पिछड़ों का हित था या एक नये प्रकार के वोट बैंक का निर्माण.......... यह मुद्दा फिर कभी l
घोषणा होने के पश्चात भारत के युवाओं में नैराश्य भर गया और जिनके लिए यह घोषणा की गई थी, उन्होंने तो कभी मांगा ही नही l
इस घोषणा के साथ भारत में आजीविका चलाने के संसाधन के रूप सबसे ज्यादा इच्छित "सरकारी नौकरी" जुड़ी थी, नतीजतन एक सुदृढ़ समाज आखिरी व्यक्ति तक विभाजित हो गया था l
बात फिलहाल दंगे की l
इस घोषणा से उपजी निराशा व हताशा के कारण सैकड़ों युवा अग्निस्नान कर लिए l
कितनी ही मांओं की गोद सूनी हो गई l
इस देश ने कितने ही होनहार खो दिए l
और शासन/प्रशासन मात्र लाठियां भांजता रहा, कानून-व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर हजारों मासूमों को जघन्य अपराधियों की तरह जेलों में ठूंसा गया था l
युवाओं ने दिल में लगी आग को अपने शरीर पर धारण करना शुरू कर दिया था l
युवाओं के इस विरोध को कोई स्पष्ट नेतृत्व नही मिला और राजनीति जीत गई l
मात्र 250-300 जिन्दगीयों से ही यह दंगा समाप्त नही हुआ, आज तक होनहारों की मानसिक/शैक्षिक/आर्थिक हत्या के रूप में बदस्तूर जारी है l
जब एक एक कर मासूम स्वयं की आहुति दे रहे थे तब
कोई भी नेता,
अभिनेता,
इतिहासकार,
कलाकार,
वैज्ञानिक,
लेखक,
कवि,
साहित्यकार,
ड्रामेबाज,
नौटंकी बाज,
साधू,
सन्यासी,
महन्त,
दार्शनिक,
समाज का ठेकेदार
सामने आकर बच्चों को नही मना किया,
किसी ने इन बच्चों के समर्थन या सरकार के निर्णय के विरोध में अपना पुरस्कार/सम्मान/इनाम/नाम नही वापस करने की घोषणा की l
ऐसा प्रतीत होता था कि
हर गली में एक भगत सिंह हाथ में मशाल लिए खड़ा हो, और
हर राजनैतिक चौराहे पर कोई गांधी अपने हठ पर अड़ा हो l
इस दंगे से तो असहिष्णुता नही फैली थी ना,
तब देश का माहौल बड़ा सुकून दायक हो गया था,
इसीलिए बच्चों के दुख पर मरहम रखने को कोई साहित्यकार, रचनाकार नही आया था l
किसी भी राणा की आंख से आंसू तब नही गिरे थे l
यह एक भीषण विभीषिका का समय था l
यह मुलायम/लालू/मायावती/शरद/नीतीश जैसों को पनपने के लिए सुनहरा अवसर था, जिसका इन सबने पूरी चतुराई से लाभ उठाया और जमकर समाज विभाजन का खेल खेला l
तब के साहित्यकार भी अपनी अपनी गोटियां सेट कर राजनीतिक चारण व भाट बन गये l
असर भी दिखा है,
जनता दल, जिसके मुखिया ने विभाजन की नींव रखी, वो भी खंड खंड होकर लुप्त प्राय हो गया l
जितने भी क्षेत्रीय क्षत्रप हैं, इनका भी झंडा तभी तक है जबतक वे स्वयं इस धरा पर विराजमान हैं, उनके बाद उनकी पार्टी का भी राम नाम सत्य l
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जिस दंगे की हमने बात की, उसने हिन्दू समाज को सर्वाधिक क्षति पंहुचाई l
इस बात को भांप कर भारतीय जनता पार्टी ने विखण्डित हो रहे हिन्दू समाज को एक रखने के लिए भगवान राम को मैदान में उतारा, कि हे ईश्वर अब तेरा ही सहारा है l
किन्तु इन तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी शक्तियों ने इसे सम्प्रदायिकता का नाम दिया, खैर वो इनकी अपनी सोच है- सोचते रहें और शौचते रहें l
भगवान राम भी, जिन्होंने शबरी के जूठे बेर खाकर जातिहीन समाज का संदेश दिया, इस हिन्दू समाज को विखंडन से नही बचा पाए l
कारण - इस समाज की सहिष्णुता l
सहते सहते, बंटते बंटते मोक्ष प्राप्ति के सन्निकट पंहुच गया है हिन्दू व हिन्दू समाज l
मात्र एक ही विकल्प है इसे बचाने का,
जाति आधारित आरक्षण समाप्त करो,
जातिहीन समाज बनाओ l
देश बचाओ l
जय हिंद,
जय भारत l

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